बालीवुड जिहाद २

 

बालीवुड जिहाद २
बालीवुड एक धीमा जहर है हिंदूओं के लिए। इसके अनेक कारण हैं। जिस पर हमें विचार करने की आवश्यकता है। जब सिनेमा का उदय हमारे भारत में हुआ तब जो वातावरण बहुत ही अलग था। दादा साहब फालके जो भारतीय सिनेमा के पितामह कहे जाते हैं। उन्होंने पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र सन् १९१३ में बनाई।
उन्होंने बहुत संघर्ष किया क्योंकि इस फिल्म में अभिनय करने के लिए उस समय कोई भी कलाकार तैयार नहीं हो रहा था। यहां तक कि तवायफों ने भी मना कर दिया था।  पर धीरे धीरे लोगों के विचार बदले और बहुत से लोग फिल्म निर्माण में जुड गए।
हिंदू और मुस्लिम समुदाय के अलावा बालीवुड में पारसी, ईसाई, बौद्ध,यहूदी और एंग्लो-इंडियन  कलाकार भी रहे हैं।  प्रारंभ में अच्छे व संभ्रांत घरों ने बालीवुड में काम करने से दूरी बना रखी थी। कुछ स्त्री-पुरुष विवशता के कारण कलाकार के रूप में काम करने लगे। जब आर्देशिर ईरानी ने पहली बोलती फिल्म बनाई उसके बाद फिल्मों का दौर बढ़ने लगा। चालीस के दशक से ही बहुत से मुस्लिम निर्देशक आए जिन्होंने ने अनेक फिल्में बनाई, कुछ मुस्लिम निर्देशक के नाम निम्नलिखित हैं।

मुस्लिम निर्देशक
एम सादिक - रत्न (१९४४)
महबूब खान -१९४१
ए म खान-
नजीर-आबरू १९४३
के एल खान - दुनिया दीवानी १९४३
ज़हूर राजा
खुर्शीद खान -अबला १९४१
खान मस्ताना - अकेला १९४१
मास्टर बशीर -अलाउद्दीन लैला १९४१
रफीक रिजवी
क़ाज़ी नसरूल इस्लाम
रफीक गजनवी
गुलाम मोहम्मद
ज़िया सरहदी
एस खलील - नयी ज़िंदगी १९४३
सैयद शौकत -नौकर १९४३
नज़्म नक्वी
एस एम युसुफ
एम सादिक
ए करीम
जी करीम
नज़ीर अजमेरी
शहजादा अयाज़
शौकत हुसैन रिजवी
एम शमशुद्दीन
सिबतिन फाजिल
वली साहब
वजा़हत मिर्ज़ा
एस एम रज़ा
मजहर खान
ए रशीद
एस उस्मान
सफदर मिर्जा
ख़्वाजा अहमद अब्बास
ए आर जमींदार
के ऐ अब्बास
नसीम सिद्दकी
इजरा मिरा
अफ़ज़ल जहांगीर
असलम नूरी
रजम नकवी
अख़्तर हुसैन
मुहम्मद हुसैन
शाह अज़ीज़
नसरत ए मंसूरी
आगा खान कश्मीरी
के माजिद
शहीद लतीफ
के ए अब्बास -अनहोनी १९५३
कमाल अमरोही- पाकीजा
के आसिफ़ - मुग़ल ए आज़म
महेश भट्ट

मुस्लिम फ़िल्म प्रोड्यूसर
अब्दुल रशीद करदार

इनके साथ बहुत से मुस्लिम संगीतकार हुए।
संगीतकार
खुर्शीद खान -अबला १९४१
खान मस्ताना - अकेला १९४१
मास्टर बशीर -अलाउद्दीन लैला १९४१
रफीक रिजवी
क़ाज़ी नसरूल इस्लाम
रफीक गजनवी
फतेह अली खान
गुलशन सूफी
बशीर देहलवी
फिरोज निजामी
सज्जाद हुसैन
अल्लाह रखा
अफजल लाहौरी
जी ए चिश्ती
सज्जाद हुसैन
गुलाम हैदर
निसार बज्मी
हाफ़िज़ खान मस्ताना
मोहम्मद शफी
अली हुसैन
खान अज़ीज़
ए आर कुरैशी
खुर्शीद अनवर
नौशाद
सरदार मलिक
अनु मलिक
साजिद वाजिद
गायक
मोहम्मद रफी
तलत महमूद
ज़ोहराबाई अम्बालेवाली
शमशाद बेगम
मुबारक बेगम
सुरैया
नूरजहां
मुहम्मद अज़ीज़
शब्बीर कुमार (शब्बीर अली)
परवीन सुल्ताना

पटकथा लेखक तो अधिकांश मुस्लिम ही थे। इस कारण  प्रारम्भ से ही बालीवुड में उर्दू और मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव पड़ा। बहुत से ग़ैर हिंदू कलाकार हिंदू नाम से फिल्मों में आए। जिनकी
पृष्ठभूमि कोई अच्छी नहीं थी। ऐसा नहीं है कि हिंदू संस्कृति पर फिल्में नहीं बनीं। इन मुस्लिम निर्देशको ने हिंदू संस्कृति पर भी अनेक फिल्में बनाई और इन फिल्मों से पैसा कमाया। मुस्लिम कलाकारों ने हिंदू नाम रख कर बहुत अच्छे से अभिनय भी किया। पर कही न कही मुस्लिम समुदाय के निर्देशक ने अपने समाज और पथं का महिमा मंडन जारी रखा। कुछ प्रसिद्ध कलाकार जो हिन्दू नाम से पर्दे पर आए उनके नाम हैं।
दिलीप कुमार  - युसुफ खान
मीना कुमारी - महजबीन
मधुबाला - मुमताज़
नर्गिस - फातिमा
निम्मी - नवाब बानो
श्यामा - खुर्शीद
कुमकुम - जेबुन्निसा खान
अजीत - हमीद अली खान
जानी वाकर - बदरूद्दीन अली क़ाज़ी
संजय खान - अब्बास खान
रीना राय - सायरा
जगदीप - सईद जाफरी
आलिया भट्ट - आलिया अली
अर्जुन - फिरोज खान (महाभारत)
मंदाकिनी - यास्मीन (राम तेरी गंगा मैली)

अस्सी व नब्बे के दशक से मुस्लिम कलाकार अपने मूल नाम से आने लगे। आमिर खान, सलमान खान, शाहरुख खान , सैफ अली खान जैसे कलाकार उभरने लगे। बालीवुड में लगभग २७ प्रतिशत जो कलाकार हैं वो मुस्लिम है।
       इन परिस्थितियों का एक कारण है कि एक संस्था इप्टा या भारतीय जन नाट्य संघ या इंडियन पीपुल्स थियेटर असोसिएशन जिसकी स्थापना १९४३ में हुई थी। ये संगठन रंगमंच से जुडा हुआ था।इस संगठन से करीब बारह हजार कलाकार, निर्देशक इत्यादि जुड़े हुए थे। जिसमें पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी, ख़्वाजा अहमद अब्बास आदि लोग जुड़े हुए थे। वैसे ये संगठन रंगमंच से जुडा हुआ था पर फिल्म उद्योग में इसी संगठन के लोग थे। ये संगठन वामपंथी विचारधारा का था और इसमें मुस्लिम की संख्या अच्छी थी। इसी संगठन से जुड़े हुए लोग फिल्मों में आए और अपना स्थान बनाया। इसी कारण प्रारम्भ से ही मुस्लिम का दबाव बालीवुड पर रहा।
          ऐसा नहीं है कि बॉलीवुड में अच्छे हिंदू कलाकारों की कमी है। लेकिन हिंदू कलाकारों और निर्देशको ने भी वही किया जो उन्हें पैसा और प्रसिद्धि दिला सके। धर्मनिरपेक्षता को बढ चढकर दिखाने में हिंदू कलाकार पीछे नहीं रहे। बालीवुड में जो अधिकांश हिंदू हैं वो पाकिस्तान से आए हुए हैं। पर उन्होंने ने भी विभाजन की विभीषिका को परदे नहीं दिखाया। बलराज साहनी, मनोज कुमार, सुनील दत्त जैसे समाजवादी विचारधारा के होने के कारण कभी इस बात पर जोर नहीं दिया।  अधिकांश बालीवुड के हिन्दू प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष मुस्लिम कलाकारों व निर्देशक से जुड़े रहे। कई मुस्लिम अभिनेत्रियां का संबंध हिंदू घराने से रहा है। बालीवुड मे हिंदू और मुस्लिम ने आपस मे शादियां भी की। हिंदू कलाकारों ने निकाह भी पढ़ा। इन्हीं कारणों से भी इस जिहाद को बल मिला। बालीवुड में कभी भी मुस्लिम कलाकारों को काम की कमी नहीं रही। प्रसिद्ध अभिनेता सुनील दत्त की शादी नर्गिस (फातिमा) से हुई थी। नर्गिस की मृत्यु कैंसर से हो गई थी। नर्गिस के अंतिम संस्कार के समय विवाद हो गया था। सुनील दत्त उनका अंतिम संस्कार हिंदू रीति-रिवाज से करवाना चाहते थे और नरगिस के भाई उनका कफ़न दफ़न करवाने पर अड़े हुए थे। नर्गिस ने हिंदू संस्कृति को अपना भी लिया था लेकिन संगीतकार नौशाद ने नर्गिस और उसके भाई को भड़काया था।अंत में नर्गिस को घर से विदा हिंदू रीति से किया लेकिन उनको कब्रिस्तान में दफ़नाया गया।
      सुप्रसिद्ध गायक और अभिनेता किशोर कुमार ने मधुबाला (मुमताज़) से धर्म छोड़कर निकाह किया था। हालांकि मधुबाला को कैंसर हो गया था और उनका जीवन अधिक दिनों का नहीं था। ऐसी बहुत सी घटनाएं बालीवुड में हुई है।
        बालीवुड में सबसे अधिक समय तक कोई परिवार रहा वो कपूर परिवार है जिसकी चार पीढ़ी फिल्म जगत में रही है। ये परिवार पेशावर से भागकर मुंबई आया था। पृथ्वीराज कपूर ने अपना स्थान बालीवुड में बनाया। बाद में राज कपूर, शम्मी कपूर, शाशि कपूर आगे आए और अभी वर्तमान में रणवीर कपूर है। १९८२ में एक फिल्म आई थी जिसका नाम था निकाह जिसकी नायिका थी सलमा आगा थी। जो कि एक पाकिस्तानी थी। इस नायिका ने बालीवुड में अनेक फिल्मों में काम किया। वास्तव में ये पाकिस्तानी अभिनेत्री कपूर परिवार की रिश्तेदार है।
सलमा आगा राजकपूर के मामा की बेटी की बेटी है। इसी परिवार की बेटी करिश्मा कपूर ने सैफ अली खान से शादी की।
       सलीम खान जो कि सलमान खान के पिता हैं इनका खुद का फिल्म प्रोडक्शन हाउस है। यश चोपड़ा के जाने के बाद से इनका काफी दबदबा है। यस बास जैसे घटिया धारावाहिक यही चला रहे हैं और समाज में अश्लीलता फैला रहे हैं।
  नौशाद जो एक संगीतकार थे उन्होंने कभी किशोर कुमार को एक भी गाना गाने नहीं दिया। नौशाद ने सदैव मोहम्मद रफी को ही गाने दिए। सुप्रसिद्ध गायिका लता मंगेशकर जी को भी नजरंदाज किया। उन्होंने सदैव सुरैया, शमशाद बेगम, मुबारक बेगम को वरीयता दी। किशोर कुमार को सरकार की तरफ से कभी कोई पुरस्कार नहीं मिला जबकि मोहम्मद रफी को पद्मश्री मिला। यहां तक कि सैफ अली खान जैसे औसत दर्जे के कलाकार को भी पद्मश्री पुरस्कार मिल चुका है। लता मंगेशकर जी ने भी शांत रह कर इन जिहादियों से काफी संघर्ष किया।
    दिलीप कुमार उर्फ युसुफ़ खान अपने समय के शीर्ष कलाकारो में से एक थे। इनको भारत में कई सम्मान मिले। इन्हें पाकिस्तान से निशान ए इमित्याज भी मिला था। जब सन १९६५ का युद्ध हुआ था तब भारत सरकार ने अनेक प्रतिबंध लगाए थे। जिसमें पाकिस्तानी रेडियो को भी प्रतिबंधित किया गया था। दिलीप कुमार जी पाकिस्तानी रेडियो सुनने के बड़े शौकीन थे। उनके पास एक ऐसा यंत्र था जिसकी सहायता से वो युद्ध के समय निर्बाधित रूप से से उसे सुनते रहे। आश्चर्य की बात यह है कि सरकार को इसका पता लगने के बाद भी इन महाशय पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।
       बालीवुड की फिल्मों में अन्डरवल्ड का हस्तक्षेप ७० के दशक से होने लगा था। इस परिस्थिति को भांप कर रामानंद सागर जैसे निर्देशक ने जिन्होंने अनेक फिल्मों का निर्माण किया था, वे छोटे पर्दे यानी टीवी चैनलों की तरफ मुड़ गये। ८० दशक से अपराध जगत पर फिल्में बनने लगी। समाज में अमीर और गरीबों के बीच के संघर्ष दिखाया जाने लगा जो वामपंथी एजेंडा था। फिल्मों में हिंदू नाम के कलाकारों का विधर्मियों से विवाह के दृश्यों को दिखाया जाने लगा।
            दाऊद इब्राहिम का प्रभाव भी दिखाई देने लगा था। इसी समय गुलशन कुमार का उदय हुआ जिन्होंने टी-सीरीज नाम की कंपनी बनाई और नये कलाकार को अवसर प्रदान किया। धार्मिक गाने और भजन के कैसेट बनाए और फिल्मों में भजन और धार्मिक गीत रखवाए। गुलशन कुमार ने नदीम सैफी को अवसर दिया जो बाद श्रवण कुमार के साथ संगीत देने लगा।
गुलशन कुमार की लोकप्रियता और कमाई बढ़ने का कारण अंडरवर्ल्ड से पैसे की मांग आने लगी (जजिया)। वो नहीं देने के कारण उनकी हत्या हो गई। उसके बाद फिल्मों में भक्ति गीत समाप्त से हो गये। इस घटना के बाद टी-सीरीज से जुड़ी गायिका अनुराधा पौडवाल को बालीवुड में कोई काम नहीं मिला। नदीम सैफी विदेश भाग गया और आज तक वहीं पर है।
         राकेश रोशन जो कि एक अभिनेता व निर्देशक रह चुके हैं उन पर भी हमला हुआ था, क्योंकि उन्होंने ने भी पैसे देने से मना किया था। उनके पुत्र हृितिक को भी काम मिलना बंद हो गया।

बालीवुड में पाकिस्तान के कलाकारों और संगीतकार को भी काम मिला। कुछ अभिनेत्रियां आई जैसे सलमा आगा, जेबा बखित्यार, सत्ताशौरी, अनिता अय्यूब इत्यादि। कुछ गायक जैसे नुसरत फतेह अली खान, आतिफ असलम, आबिदा परवीन, रेशमा आदि बहुत से लोग आए ,और हमारे ही देश के हिंदू कलाकारों को काम पाने के लिए संघर्ष करते रहे। सभी शीर्ष के कलाकार आज भी दाऊद इब्राहिम के दरबार में सर झुकाने जात थे और आज भी जाते हैं। हिंदी फिल्मों में जो पैसा लगता है वह अपराध जगत से ही आता है। इस अपराध जगत का भारत देश में बहुत दबदबा है। जब केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी जी की सरकार थी तब सुषमा स्वराज सूचना प्रसारण मंत्री थीं। वो चाहती थी कि बालीवुड को फिल्म उद्योग का दर्जा दिया जाय और फिल्मों के निर्माण के लिए वैधानिक तरीके से धन उपलब्ध करवाया जाय। इससे पहले वो कुछ प्रयास करती उन्हें सूचना प्रसारण मंत्री पद से हटाकर अन्यत्र स्थानांतरित कर दिया गया था।
        बालीवुड में बनने वाली कुछ फिल्में आस्कर पुरस्कार के लिए भी गयी। ये अधिकांश फिल्मों में भारत देश की गरीबी और लोगों की दुस्थिति को दिखाया।मदर इंडिया जो कि महबूब खान द्वारा निर्देशित थी इसमें हिंदू महिला को दबाकुचला दिखाया गया था और हिंदू पुरुष को अत्याचारी दिखाया गया। ये फिल्म भी आस्कर अवार्ड के लिए भेजी गई थी।
पाकीज़ा फिल्म जो कि एक तवायफ के जीवन पर बनी थी उसे भी  अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत महत्व दिया गया था। हिंदू मूल्यों पर बनने वाली फिल्मों को सदा ही नजरंदाज किया गया था।
       सन् ७० के दशक में एक समानांतर सिनेमा आया। जिसके अंतर्गत कम बजट की अभिनय प्रधान फिल्में बनीं। जिन्हें कला फिल्मों का नाम दिया गया। जिसमें रंगमंच के कलाकार अधिक जुड़े थे। इन फिल्मों की कहानी वामपंथी विचारधारा पर आधारित होती थी। जिसमें विवाहेत्तर संबंध, बिना विवाह के संबंध, समान्य जीवन में तनाव, बिना पसंद की शादी, असंतुष्टता, छद्म संघर्ष, धन की कमी के कारण नायक नायिका का गलत रास्ते पर चले जाना इत्यादि दर्शाया गया। ये फिल्में व्यवसायिक फिल्मों की अपेक्षा अधिक सहज और सादगी पूर्ण हुआ करती थीं।  इन फिल्मों का संगीत भी अच्छा हुआ करता था। शबाना आज़मी, नसरूदीन शाह, स्मिता पाटिल, सुप्रीया पाठक, रज़ा मुराद, इरफान खान, जरीना बहाव आदि कलाकार हुआ करते थे। ये फिल्में अधिकतर पुरस्कार जीतने के लिए बनाई जाती थीं।  ७० दशक के बाद में पारिवारिक जीवन पर बनने वाली फिल्में कम हुई। इस समय की फिल्मों में हिंदू नायक नायिकाओं को माता पिता और परिवार से विद्रोह करते हुए दिखाया गया। भागकर शादी करने के दृश्य बहुत दिखाए गए। अपने ही बच्चे की चिंता करने वाले माता पिता को खलनायक बनाकर दिखाया गया। तथाकथित शिक्षित लडके लडकियों को माता पिता की अवहेलना कर स्वयं विवाह करना और परिवार से अलग रहना दिखाया जाने लगा है। हिंदू संयुक्त परिवार में पारिवारिक सदस्यों को छल कपट करते हुए दिखाना। सास बहू ननद ससुर दामाद आदि संबंध को नकारात्मक रूप में दिखाया जाने लगा।
             वामपंथी एजेंडा के तहत हिंदू परिवार को बेटी को गरीब लडके से प्रेम करते हुए दिखाया जाने लगा। धनी व्यक्तियों को ऐसा दिखाया जाने लगा जैसे सभी अमीर व्यक्ति भ्रष्ट तरीके से धन कमाते हैं और धूर्त व अत्याचारी होते हैं। धनी व्यक्तियों की गलत छवि प्रस्तुत की गई।मालिक व मजदूर का संघर्ष दिखाया गया। पर ऐसी कहानियां कभी मुस्लिम पृष्ठभूमि पर नहीं फिल्माई गईं। परिवार को तोडने के षडयंत्र में बालीवुड का बहुत बड़ा हाथ है। विभाजन के पहले और बाद तक भी हिंदू नायक धोती कुर्ता पगड़ी तिलक इत्यादि में दिखाई भी देते थे। 60 के दशक से अधिकांश फिल्मों में हिंदू नायक को पैंट शर्ट व सूट बूट में दिखाया जाने लगा था। अब इस लेख को मैं विराम देता हूं। अगले लेख में हम और तथ्यों पर विचार करेंगे।

सचिन कुमार

    
       

 
    

        
                 





टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

आर्थिक जिहाद भाग १

अध्यात्म जिहाद भाग १