बालीवुड जिहाद ३

 बालीवुड जिहाद ३

  पिछले अंक में हमने बालीवुड जिहाद के षडयंत्र को समझने का प्रयास किया। हम इसके और पक्षों पर विचार करते हैं। 

      गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी एक जिहादी था। स्वतंत्रता के बाद ये भारत में रहकर कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ा हुआ था।  भारत को शस्त्रों द्वारा इस्लामिक देश बनाने के लिए जो संगठन बना था और वो संगठन पाकिस्तान से चलता था उससे ये जुड़ा हुआ था।इस व्यक्ति पर आपराधिक प्रकरण दर्ज किया गया था।इसने ऐसे गाने लिखे जो हिन्दू धर्म का सरेआम मज़ाक उड़ाते थे। जैसे "पत्थर के सनम तुझे हमने मोहब्बत का खुदा माना बड़ी भूल हुई ये क्या समझा ये क्या जाना" । 

          महमूद खान ने जो भी फिल्म बनाई वो हिंदूओं के सवर्ण समुदाय के लोगों को अत्याचारी दिखाया। उसने गंगा की सौगंध फिल्म बनाई थी जिसमें फिल्म के नायक को अपनी शिखा जलाते हुए दिखाया गया है। सामाजिक सुधार के नाम पर हिंदू परंपरा का उपहास किया था।इस फिल्म की सराहना रूस ने भी की थी। महमूद खान की फिल्मों में पटकथा लेखक वजा़हत मिर्ज़ा हुआ करता था जो एक जिहादी था और वो बाद में पाकिस्तान चला गया था। मदर इंडिया और गंगा की सौगंध फिल्म की पटकथा इसी ने लिखी थी। 

            मशहूर संगीतकार नौशाद जो स्वतंत्रता के बाद से ही फिल्मों में संगीत दिया करते थे। इन्होंने अनेक फिल्मों में संगीत दिया और उनमें से कुछ फिल्में प्रसिद्ध भी हुईं। पर ये व्यक्ति एक जिहादी सोच वाला ही था। इसने अपनी फिल्मो में अधिकतर मुस्लिमों को ही काम दिया। इसने अपने अधिकांश गाने मोहम्मद रफी व तलत महमूद से गवाये। इसने गीतकार मुकेश को शर्त रखी थी कि वो शंकर जयकिशन के साथ नहीं गाएगें तभी उन्हें काम मिलेगा। लता मंगेशकर और किशोर कुमार से तो ये बहुत नफरत करता था। पर राजकपूर ने लता मंगेशकर और मुकेश का साथ दिया। नौशाद ने लता मंगेशकर से मजबूरी में ही गीत गाने को दिए और किशोर कुमार को कभी कोई गीत गाने को नहीं दिया। फिल्म मुगल-ए-आजम में नौशाद लता मंगेशकर को नहीं लेना चाहते थे पर मधुबाला उर्फ मुमताज़ देहलवी ने शर्त रखी थी कि मेरे गाने केवल लता ही गाएंगी। इसी कारण नौशाद को लता जी को अपनी फिल्म में गीत गाने को देने पड़े।दिलीप कुमार उर्फ युसुफ़ खान अनेक निर्देशक पर दबाव डालकर हिंदू संगीतकार को हटाकर नौशाद को काम दिलवाया। के आसिफ़ पहले संगीतकार सरदार मलिक को लेना चाहते थे पर दिलीप कुमार ने नौशाद के लिए दबाव बनाया था। मुहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर जी के बीच गानों की रायल्टी को लेकर विवाद हो गया जिसके कारण दोनों ने तीन वर्ष तक कोई गीत साथ में नहीं गाया। बाद में जब मुहम्मद रफ़ी को नुक्सान होने लगा तो दिलीप कुमार ने इन दोनों के बीच सुलह करवाई। हालांकि 1970 के बाद नौशाद को किसी फिल्म में काम नहीं मिला। 

           देवानंद और सुरैया के बीच प्रेम संबंध था और दोनों के घर वाले बहुत हद तक मान भी जाते,  लेकिन नौशाद ने सुरैया के घर वालों को भड़काया और सुरैया की नानी ने ये शादी नहीं होने दी। पड़ोसन फिल्म की शूटिंग के दौरान सायरा बानो की शादी दिलीप कुमार से जल्दी में करवाई गई। उस समय सायरा बानो की आयु २३ वर्ष थी और दिलीप कुमार उर्फ युसुफ़ खान ४६ वर्ष के थे। ये शादी भी नौशाद ने ही करवाई थी क्योंकि उसको डर था कि सायरा बानो कहीं सुनील दत्त से शादी न कर लें। 

     दिलीप कुमार उर्फ युसुफ़ खान को सरकार ने जमीन दी थी जिस पर एक बहुत बड़ा बंगला बनवाया गया। दिलीप कुमार की कोई संतान नहीं थी। उन्होंने वसीयत करी थी कि मृत्यु के बाद सारी सम्पत्ति वक्फ बोर्ड को दान में दे दी जाए। ऐसा हुआ भी जब उनकी सम्पत्ति वक्फ बोर्ड को दी गई तब उसकी कीमत 96 करोड़ थी। दिलीप कुमार ने जो घर बनवाया था उसके आस पास सभी मुस्लिम ही बसाए थे जो बालीवुड से जुड़े हुए थे। नौशाद का घर भी इन्हीं में से एक था। दिलीप कुमार को पाकिस्तान से निशान ए इमित्याज पुरस्कार मिला हुआ था। भारत पाकिस्तान के संबंध कितने भी खराब हुए पर इसने कभी विरोध स्वरूप इसने ये पुरस्कार नहीं लौटाया। 


        गुलशन कुमार जो की टी-सीरीज के मालिक थे। वे अपने प्रारम्भिक दौर में जूस की दुकान चलाते थे। फिर उन्होंने कैसेट्स का काम चालू किया। उन्होंने सस्ती कैसेट्स उपलब्ध करवाई तथा नये गायक, गायिकाओं और संगीतकार को अवसर प्रदान किया। उदित नारायण, अनुराधा पौडवाल, संगीतकार नदीम-श्रवण इनमें से एक थे। अनेक फिल्मों में इन गायको और संगीतकार ने काम किया और सफल फिल्में बनीं। नदीम श्रवण की जो नदीम सैफी था ये बहुत महत्वाकांक्षी था। इसने गायक के रूप में अपना एक एलबम निकाला और गुलशन कुमार पर दबाव डाला कि वो ये एलबम बाजार में प्रस्तुत करें। गुलशन कुमार ने उस एलबम के एक दो गाने निकाले भी पर वो गाने नहीं चले जिसके कारण गुलशन कुमार ने उस एलबम को आगे नहीं बढ़ाया। जिससे नदीम सैफी नाराज़ हो गया। गुलशन कुमार वैष्णव देवी में एक भंडारा चलाते थे जिसमें प्रतिदिन निशुल्क भोजन का वितरण होता था। इससे गुलशन कुमार की ख्याति बहुत बढ़ गई थी। अंडरवर्ल्ड से गुलशन कुमार पर पैसे की मांग की जाने लगी, उन्हें धमकाया जाने लगा और उन्हें धमकाने में अबु सलेम का हाथ था। गुलशन कुमार ने पैसे देने से मना कर दिया। फिर दुबई में इनकी हत्या की योजना बनाई गई। इस योजना में नदीम सैफी भी मिला हुआ था। अबु सलेम ने गुलशन कुमार को पैसों के लिए और नदीम सैफी के एलबम को बढ़ाने के लिए दबाव डाला। गुलशन कुमार के न मानने पर उनकी हत्या हो गई। नदीम सैफी उसके बाद दुबई चला गया और उसके बाद ब्रिटेन में शरण ली। भारत सरकार ने उसे वापस लाने की कोशिश भी की पर ब्रिटेन मे जिहादियों का तंत्र इतना मजबूत था कि भारत सरकार ने जो प्रकरण नदीम सैफी पर दर्ज किया था उसमें वो हार गयी और उसे जुर्माना भी भरना पड़ा। नदीम सैफी बिना किसी परेशानी के ब्रिटेन में अभी रह रहा है। अबु सलेम का जब पुर्तगाल से प्रत्यर्पण हुआ था तो पुर्तगाल सरकार ने शर्त रखी थी कि उस पर गुलशन कुमार की हत्या का केस नहीं चलेगा और फांसी नहीं दी जाएगी,भारत सरकार ने यह शर्त मान भी ली थी। अबु सलेम की चार्जशीट में गुलशन कुमार की हत्या का कोई भी उल्लेख नहीं है। जिहादियों का तंत्र पूरे विश्व में कितना मजबूत है इस पर विचार करना होगा। 

        गुलशन कुमार के जाने के बाद हिंदी फिल्मों से भजन भक्ति

संगीत गायब हो गया। इसकी जगह सूफी गीत दिखाई देने लगे। 

सूफी संगीत के नाम पर बाल बढाकर ज़ोर ज़ोर से चिल्लाकर और तालियां बजाकर उर्दू में गाना और जिहादी खुदाओं की तारीफ करना चालू हो गया। हिंदूओं को भी साईं बाबा के मंदिर और मजारों में जाकर पूजा करने के दृश्य दिखाई दिए जाने लगे। पाकिस्तान के गायक भी आकर कव्वाली गाने लगे। नुसरत फतेह अली ने एक कव्वाली गाई थी जो हमारे आल इंडिया रेडियो पर भी प्रसारित हुई थी।

    "कुछ तो सोचो मुसलमान हो तुम काफिरों को घर न बिठाओ। 

  लूट लेंगे ये इमान तुम्हारा इनके चेहरे से गेसू हटाओ "


लगान फिल्म में एक भजन था जो जावेद अख्तर ने लिखा था। फिल्म में ये भजन मंदिर गाया था लेकिन उसमें एक पंक्ति थी कि "ओ पालनहारे निर्गुण आना रे"। 

       अमीर खुसरो ने एक गीत लिखा था जिसमें हजरत निजामुद्दीन औलिया की प्रशंसा में जिसके बोल थे।

      "छाप तिलक सब छीन ली रे तो से नयना मिलाइके"

ये गाना वैष्णव संतों को लक्ष्य बनाकर के  लिखा गया है कि औलिया के प्रभाव में आकर वे मुस्लिम हो जाय।

    ये गाना एक फिल्म "मैं तुलसी तेरे आंगन की" मैं गाया गया है।

बहुत सी फिल्मों में मूर्ति पूजा को लेकर नाटकीय रूप से व्यंग्य किया है। 

          मुस्लिम परिवेश की कहानियां और नायकों का महिमा मंडन फिल्मों में बहुत किया गया है। जिसका एक उदाहरण प्रसिद्ध फिल्म मुगल-ए-आजम है। इसमें जो अनारकली का पात्र था इसकी भूमिका मधुबाला उर्फ मुमताज़ देहलवी ने की थी। 

इसके बारे में अनेक विचार प्रचलित हैं। पहला कि कोई अनारकली थी ही नहीं। दूसरा विचार वह जो मुग़ल ए आज़म फिल्म में दिखाया गया। तीसरा विचार जो कि एक पाकिस्तानी द्वारा दावा किया जाता है कि अनारकली शहंशाह अकबर की रखैल थी और इससे अकबर को दानियाल नामक पुत्र हुआ था। 

इस अनारकली का प्रेम संबंध अकबर के सबसे बड़े पुत्र जहांगीर उर्फ सलीम से हो गया था जिसके कारण अकबर और जहांगीर में विवाद उत्पन्न हुआ था। शाहजहां और मुमताज़ के झूठे प्रेम प्रसंगों को लेकर भी फिल्मों का निर्माण हुआ। बल्कि सच यह है कि मुमताज़ शाहजहां की सातवीं पत्नी थी और उसकी मृत्यु चौदहवें बच्चे को जन्म देने के दौरान हुई थी। ताजमहल जो कि एक हिंदू मंदिर था उसकी असलियत छुपाने के लिए एक ताजमहल के निर्माण पर भी एक फिल्म बनीं। इस फिल्म में दिखाया गया है कि अरब देशों से एक शिल्पकार भारत आता है जिसका नाम शिराज़ी था। वह भारत में बीस साल रूकता है और ताजमहल बनाकर और यहां के एक मुस्लिम लड़की रूही से शादी करके चला जाता है।  ऐसी बहुत सी फिल्में बनाई गई जिसमें आक्रांताओं का महिमा मंडन किया गया है। 

      शाहरुख खान, सलमान खान व आमिर खान के आने बाद फिल्मों में हास्य कलाकार की उपस्थिति बहुत कम हो गई। अपने आप को हरफनमौला दिखाने के लिए फिल्मों के नायक इस तरह की भूमिका स्वयं करने लगे। मुस्लिम नायकों ने सभी तरह की भूमिका निभाकर बाकी कलाकारों के काम छीन लिए। इनकी कहानियां भी बिना सिर पैर की होती है और अच्छी कहानियां भी ये तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं। अभी कुछ दिनों पहले एक फिल्म आई थी जिसका नाम गंगूबाई काठियावाड़ी था। गंगूबाई एक साधारण परिवार की लड़की हुआ करती थीं। जो बालीवुड के प्रभाव में आ गयी और घर से भाग कर फिल्मों काम करने के लिए मुंबई में चली आईं। पर उन्हें फिल्मों में काम भी नहीं और उनके साथ धोखे से शारीरिक शोषण हो गया। जिसके कारण वो निराश हो गई और उन्होंने फिल्मों में काम ढूंढने की बजाय समाज सुधार का काम शुरू किया। उन्होंने वेश्यावृत्ति करने वाली महिलाओं की सहायता करना चालू करी। उन्होंने अपने जीवन में चार ऐसे बच्चों को गोद लिया जो वेश्यावृत्ति करने वाली की संतानें थी। वो तात्कालिक प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से भी मिलीं थीं और ऐसी महिलाओं की स्थिति से अवगत करवाया था। समाज में उन्होंने अच्छे काम के कारण सम्मान की दृष्टि से देखा गया। लेकिन इस फिल्म आने के बाद उनकी छवि ख़राब हुई और उन्हें एक वैश्या के रूप में देखा जाने लगा है। आज उनके बच्चे समाज में मुंह नहीं दिखा पा रहे हैं। इस फिल्म के निर्देशक संजय लीला भंसाली और पटकथा लेखक हुसैन जैदी है। फिल्म प्रदर्शित होने से पहले गंगूबाई के परिवार ने मुकदमा दर्ज किया था। 

        जिहादियों का षडयंत्र और हिंदूओं की निधर्मिता ने बालीवुड को खूब फैलाया जिससे हिंदूओं की और हिंदू धर्म की बहुत हानि हुई है। बालीवुड एक मंनोरंजन का साधन नहीं बल्कि एक माफिया बन गया है। इसको समाप्त करना और हिंदू कलाकारों को कला के माध्यम से रोजगार मिले इसकी व्यवस्था करना बहुत आवश्यक है। इसके लिए हमें एक रणनीति बनाकर कार्य करना होगा। अब मैं इस लेख को विराम देता हूं।


सचिन कुमार 






    

        

         

            

         



           

       


   

        

बालीवुड जिहाद ३
  पिछले अंक में हमने बालीवुड जिहाद के षडयंत्र को समझने का प्रयास किया। हम इसके और पक्षों पर विचार करते हैं। 
      गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी एक जिहादी था। स्वतंत्रता के बाद ये भारत में रहकर कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ा हुआ था। भारत को शस्त्रों द्वारा इस्लामिक देश बनाने के लिए जो संगठन बना था और वो संगठन पाकिस्तान से चलता था उससे ये जुड़ा हुआ था।इस व्यक्ति पर आपराधिक प्रकरण दर्ज किया गया था।इसने ऐसे गाने लिखे जो हिन्दू धर्म का सरेआम मज़ाक उड़ाते थे। जैसे "पत्थर के सनम तुझे हमने मोहब्बत का खुदा माना बड़ी भूल हुई ये क्या समझा ये क्या जाना" । 
          महमूद खान ने जो भी फिल्म बनाई वो हिंदूओं के सवर्ण समुदाय के लोगों को अत्याचारी दिखाया। उसने गंगा की सौगंध फिल्म बनाई थी जिसमें फिल्म के नायक को अपनी शिखा जलाते हुए दिखाया गया है। सामाजिक सुधार के नाम पर हिंदू परंपरा का उपहास किया था।इस फिल्म की सराहना रूस ने भी की थी। महमूद खान की फिल्मों में पटकथा लेखक वजा़हत मिर्ज़ा हुआ करता था जो एक जिहादी था और वो बाद में पाकिस्तान चला गया था। मदर इंडिया और गंगा की सौगंध फिल्म की पटकथा इसी ने लिखी थी। 
            मशहूर संगीतकार नौशाद जो स्वतंत्रता के बाद से ही फिल्मों में संगीत दिया करते थे। इन्होंने अनेक फिल्मों में संगीत दिया और उनमें से कुछ फिल्में प्रसिद्ध भी हुईं। पर ये व्यक्ति एक जिहादी सोच वाला ही था। इसने अपनी फिल्मो में अधिकतर मुस्लिमों को ही काम दिया। इसने अपने अधिकांश गाने मोहम्मद रफी व तलत महमूद से गवाये। इसने गीतकार मुकेश को शर्त रखी थी कि वो शंकर जयकिशन के साथ नहीं गाएगें तभी उन्हें काम मिलेगा। लता मंगेशकर और किशोर कुमार से तो ये बहुत नफरत करता था। पर राजकपूर ने लता मंगेशकर और मुकेश का साथ दिया। नौशाद ने लता मंगेशकर से मजबूरी में ही गीत गाने को दिए और किशोर कुमार को कभी कोई गीत गाने को नहीं दिया। फिल्म मुगल-ए-आजम में नौशाद लता मंगेशकर को नहीं लेना चाहते थे पर मधुबाला उर्फ मुमताज़ देहलवी ने शर्त रखी थी कि मेरे गाने केवल लता ही गाएंगी। इसी कारण नौशाद को लता जी को अपनी फिल्म में गीत गाने को देने पड़े।दिलीप कुमार उर्फ युसुफ़ खान अनेक निर्देशक पर दबाव डालकर हिंदू संगीतकार को हटाकर नौशाद को काम दिलवाया। के आसिफ़ पहले संगीतकार सरदार मलिक को लेना चाहते थे पर दिलीप कुमार ने नौशाद के लिए दबाव बनाया था। मुहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर जी के बीच गानों की रायल्टी को लेकर विवाद हो गया जिसके कारण दोनों ने तीन वर्ष तक कोई गीत साथ में नहीं गाया। बाद में जब मुहम्मद रफ़ी को नुक्सान होने लगा तो दिलीप कुमार ने इन दोनों के बीच सुलह करवाई। हालांकि 1970 के बाद नौशाद को किसी फिल्म में काम नहीं मिला। 
           देवानंद और सुरैया के बीच प्रेम संबंध था और दोनों के घर वाले बहुत हद तक मान भी जाते, लेकिन नौशाद ने सुरैया के घर वालों को भड़काया और सुरैया की नानी ने ये शादी नहीं होने दी। पड़ोसन फिल्म की शूटिंग के दौरान सायरा बानो की शादी दिलीप कुमार से जल्दी में करवाई गई। उस समय सायरा बानो की आयु २३ वर्ष थी और दिलीप कुमार उर्फ युसुफ़ खान ४६ वर्ष के थे। ये शादी भी नौशाद ने ही करवाई थी क्योंकि उसको डर था कि सायरा बानो कहीं सुनील दत्त से शादी न कर लें। 
     दिलीप कुमार उर्फ युसुफ़ खान को सरकार ने जमीन दी थी जिस पर एक बहुत बड़ा बंगला बनवाया गया। दिलीप कुमार की कोई संतान नहीं थी। उन्होंने वसीयत करी थी कि मृत्यु के बाद सारी सम्पत्ति वक्फ बोर्ड को दान में दे दी जाए। ऐसा हुआ भी जब उनकी सम्पत्ति वक्फ बोर्ड को दी गई तब उसकी कीमत 96 करोड़ थी। दिलीप कुमार ने जो घर बनवाया था उसके आस पास सभी मुस्लिम ही बसाए थे जो बालीवुड से जुड़े हुए थे। नौशाद का घर भी इन्हीं में से एक था। दिलीप कुमार को पाकिस्तान से निशान ए इमित्याज पुरस्कार मिला हुआ था। भारत पाकिस्तान के संबंध कितने भी खराब हुए पर इसने कभी विरोध स्वरूप इसने ये पुरस्कार नहीं लौटाया। 

        गुलशन कुमार जो की टी-सीरीज के मालिक थे। वे अपने प्रारम्भिक दौर में जूस की दुकान चलाते थे। फिर उन्होंने कैसेट्स का काम चालू किया। उन्होंने सस्ती कैसेट्स उपलब्ध करवाई तथा नये गायक, गायिकाओं और संगीतकार को अवसर प्रदान किया। उदित नारायण, अनुराधा पौडवाल, संगीतकार नदीम-श्रवण इनमें से एक थे। अनेक फिल्मों में इन गायको और संगीतकार ने काम किया और सफल फिल्में बनीं। नदीम श्रवण की जो नदीम सैफी था ये बहुत महत्वाकांक्षी था। इसने गायक के रूप में अपना एक एलबम निकाला और गुलशन कुमार पर दबाव डाला कि वो ये एलबम बाजार में प्रस्तुत करें। गुलशन कुमार ने उस एलबम के एक दो गाने निकाले भी पर वो गाने नहीं चले जिसके कारण गुलशन कुमार ने उस एलबम को आगे नहीं बढ़ाया। जिससे नदीम सैफी नाराज़ हो गया। गुलशन कुमार वैष्णव देवी में एक भंडारा चलाते थे जिसमें प्रतिदिन निशुल्क भोजन का वितरण होता था। इससे गुलशन कुमार की ख्याति बहुत बढ़ गई थी। अंडरवर्ल्ड से गुलशन कुमार पर पैसे की मांग की जाने लगी, उन्हें धमकाया जाने लगा और उन्हें धमकाने में अबु सलेम का हाथ था। गुलशन कुमार ने पैसे देने से मना कर दिया। फिर दुबई में इनकी हत्या की योजना बनाई गई। इस योजना में नदीम सैफी भी मिला हुआ था। अबु सलेम ने गुलशन कुमार को पैसों के लिए और नदीम सैफी के एलबम को बढ़ाने के लिए दबाव डाला। गुलशन कुमार के न मानने पर उनकी हत्या हो गई। नदीम सैफी उसके बाद दुबई चला गया और उसके बाद ब्रिटेन में शरण ली। भारत सरकार ने उसे वापस लाने की कोशिश भी की पर ब्रिटेन मे जिहादियों का तंत्र इतना मजबूत था कि भारत सरकार ने जो प्रकरण नदीम सैफी पर दर्ज किया था उसमें वो हार गयी और उसे जुर्माना भी भरना पड़ा। नदीम सैफी बिना किसी परेशानी के ब्रिटेन में अभी रह रहा है। अबु सलेम का जब पुर्तगाल से प्रत्यर्पण हुआ था तो पुर्तगाल सरकार ने शर्त रखी थी कि उस पर गुलशन कुमार की हत्या का केस नहीं चलेगा और फांसी नहीं दी जाएगी,भारत सरकार ने यह शर्त मान भी ली थी। अबु सलेम की चार्जशीट में गुलशन कुमार की हत्या का कोई भी उल्लेख नहीं है। जिहादियों का तंत्र पूरे विश्व में कितना मजबूत है इस पर विचार करना होगा। 
        गुलशन कुमार के जाने के बाद हिंदी फिल्मों से भजन भक्ति
संगीत गायब हो गया। इसकी जगह सूफी गीत दिखाई देने लगे। 
सूफी संगीत के नाम पर बाल बढाकर ज़ोर ज़ोर से चिल्लाकर और तालियां बजाकर उर्दू में गाना और जिहादी खुदाओं की तारीफ करना चालू हो गया। हिंदूओं को भी साईं बाबा के मंदिर और मजारों में जाकर पूजा करने के दृश्य दिखाई दिए जाने लगे। पाकिस्तान के गायक भी आकर कव्वाली गाने लगे। नुसरत फतेह अली ने एक कव्वाली गाई थी जो हमारे आल इंडिया रेडियो पर भी प्रसारित हुई थी।
    "कुछ तो सोचो मुसलमान हो तुम काफिरों को घर न बिठाओ। 
  लूट लेंगे ये इमान तुम्हारा इनके चेहरे से गेसू हटाओ "

लगान फिल्म में एक भजन था जो जावेद अख्तर ने लिखा था। फिल्म में ये भजन मंदिर गाया था लेकिन उसमें एक पंक्ति थी कि "ओ पालनहारे निर्गुण आना रे"। 
       अमीर खुसरो ने एक गीत लिखा था जिसमें हजरत निजामुद्दीन औलिया की प्रशंसा में जिसके बोल थे।
      "छाप तिलक सब छीन ली रे तो से नयना मिलाइके"
ये गाना वैष्णव संतों को लक्ष्य बनाकर के लिखा गया है कि औलिया के प्रभाव में आकर वे मुस्लिम हो जाय।
    ये गाना एक फिल्म "मैं तुलसी तेरे आंगन की" मैं गाया गया है।
बहुत सी फिल्मों में मूर्ति पूजा को लेकर नाटकीय रूप से व्यंग्य किया है। 
          मुस्लिम परिवेश की कहानियां और नायकों का महिमा मंडन फिल्मों में बहुत किया गया है। जिसका एक उदाहरण प्रसिद्ध फिल्म मुगल-ए-आजम है। इसमें जो अनारकली का पात्र था इसकी भूमिका मधुबाला उर्फ मुमताज़ देहलवी ने की थी। 
इसके बारे में अनेक विचार प्रचलित हैं। पहला कि कोई अनारकली थी ही नहीं। दूसरा विचार वह जो मुग़ल ए आज़म फिल्म में दिखाया गया। तीसरा विचार जो कि एक पाकिस्तानी द्वारा दावा किया जाता है कि अनारकली शहंशाह अकबर की रखैल थी और इससे अकबर को दानियाल नामक पुत्र हुआ था। 
इस अनारकली का प्रेम संबंध अकबर के सबसे बड़े पुत्र जहांगीर उर्फ सलीम से हो गया था जिसके कारण अकबर और जहांगीर में विवाद उत्पन्न हुआ था। शाहजहां और मुमताज़ के झूठे प्रेम प्रसंगों को लेकर भी फिल्मों का निर्माण हुआ। बल्कि सच यह है कि मुमताज़ शाहजहां की सातवीं पत्नी थी और उसकी मृत्यु चौदहवें बच्चे को जन्म देने के दौरान हुई थी। ताजमहल जो कि एक हिंदू मंदिर था उसकी असलियत छुपाने के लिए एक ताजमहल के निर्माण पर भी एक फिल्म बनीं। इस फिल्म में दिखाया गया है कि अरब देशों से एक शिल्पकार भारत आता है जिसका नाम शिराज़ी था। वह भारत में बीस साल रूकता है और ताजमहल बनाकर और यहां के एक मुस्लिम लड़की रूही से शादी करके चला जाता है। ऐसी बहुत सी फिल्में बनाई गई जिसमें आक्रांताओं का महिमा मंडन किया गया है। 
      शाहरुख खान, सलमान खान व आमिर खान के आने बाद फिल्मों में हास्य कलाकार की उपस्थिति बहुत कम हो गई। अपने आप को हरफनमौला दिखाने के लिए फिल्मों के नायक इस तरह की भूमिका स्वयं करने लगे। मुस्लिम नायकों ने सभी तरह की भूमिका निभाकर बाकी कलाकारों के काम छीन लिए। इनकी कहानियां भी बिना सिर पैर की होती है और अच्छी कहानियां भी ये तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं। अभी कुछ दिनों पहले एक फिल्म आई थी जिसका नाम गंगूबाई काठियावाड़ी था। गंगूबाई एक साधारण परिवार की लड़की हुआ करती थीं। जो बालीवुड के प्रभाव में आ गयी और घर से भाग कर फिल्मों काम करने के लिए मुंबई में चली आईं। पर उन्हें फिल्मों में काम भी नहीं और उनके साथ धोखे से शारीरिक शोषण हो गया। जिसके कारण वो निराश हो गई और उन्होंने फिल्मों में काम ढूंढने की बजाय समाज सुधार का काम शुरू किया। उन्होंने वेश्यावृत्ति करने वाली महिलाओं की सहायता करना चालू करी। उन्होंने अपने जीवन में चार ऐसे बच्चों को गोद लिया जो वेश्यावृत्ति करने वाली की संतानें थी। वो तात्कालिक प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से भी मिलीं थीं और ऐसी महिलाओं की स्थिति से अवगत करवाया था। समाज में उन्होंने अच्छे काम के कारण सम्मान की दृष्टि से देखा गया। लेकिन इस फिल्म आने के बाद उनकी छवि ख़राब हुई और उन्हें एक वैश्या के रूप में देखा जाने लगा है। आज उनके बच्चे समाज में मुंह नहीं दिखा पा रहे हैं। इस फिल्म के निर्देशक संजय लीला भंसाली और पटकथा लेखक हुसैन जैदी है। फिल्म प्रदर्शित होने से पहले गंगूबाई के परिवार ने मुकदमा दर्ज किया था। 
        जिहादियों का षडयंत्र और हिंदूओं की निधर्मिता ने बालीवुड को खूब फैलाया जिससे हिंदूओं की और हिंदू धर्म की बहुत हानि हुई है। बालीवुड एक मंनोरंजन का साधन नहीं बल्कि एक माफिया बन गया है। इसको समाप्त करना और हिंदू कलाकारों को कला के माध्यम से रोजगार मिले इसकी व्यवस्था करना बहुत आवश्यक है। इसके लिए हमें एक रणनीति बनाकर कार्य करना होगा। अब मैं इस लेख को विराम देता हूं।

सचिन कुमार 





    
        
         
            
         


           
       

   
        

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